सोमवार, 26 सितंबर 2016

हम अभी युद्ध की स्थिति में नहीं हैं

पिछली सरकारों द्वारा की गई सेना की तैयारियों के कारण हमारी स्थिति अभी के सन्दर्भ में युद्ध की नहीं है, सेना और जनता मानसिक रूप से तो तैयार है परंतु सेना के पास अभी के स्थिति में युद्ध के लिए पर्याप्त सस्त्र अस्त्र नहीं है, क्योंकि अगर अभी युद्ध हुआ तो भारत को कई सिमा पे लड़ना पड़ सकता है। अगर केवल पाकिस्तान से लड़ना हो तो भारत कभी भी और कहीं भी सक्षम है परंतु पाकिस्तान के साथ चीन खड़ा है तो हो सकता है पाकिस्तान की मदद के लिए चीन भारत के पुरवोत्तर सिमा पर युद्ध छेड़ दे, उत्तरी सीमा पे भी चीन है तो वहाँ भी युद्ध की स्थिति को नाकारा नहीं जा सकता। बाकि उत्तर से लेके पशिम में गुजरात तक पाकिस्तान की सीमा लगती है भारत के साथ। कुल मिलाके हो सकता है कि भारत को ८ से लेके १५ जगहों तक भयंकर युद्ध करना पड़ सकता है। और वर्तमान में भारत की सैन्य तैयारियां उतनी पुख्ता नहीं है क्योंकि सही मायने में सैन्य तैयारियां पिछले एक डेढ़ वर्षों से समुचित प्रगति पे है और सेना को पूरी तरह दुरुस्त होने में अभी ४ से ५ वर्ष लग सकते हैं।
पारंपरिक युद्ध के अलावा भारत परमाणु युद्ध पे कभी विचार कर ही नहीं सकता जब तक भारत पे परमाणु हमला ना हो जाए।

तो किया क्या जाये, कूटनीतिक प्रयास जो की अभी हो रहा है उसे और बल दिया जाये। सिंधु नदी समझौता एक महत्वपूर्ण हल है भारत के लिए, अगर भारत इस समझौते को रद्द करता है तो दो चीजें होंगी वो भी भारत के पक्ष में।
एक तो पाकिस्तान आर्थिक रूप से कमजोर होगा क्योंकी पाकिस्तान की दो तिहाई कृषि इसी सिंधु नदी पर निर्भर है जिसके कारण पाकिस्तानी किसानों का बहुत बड़ा वर्ग भी पाकिस्तान पे दबाव बन सकता है।
दूसरा भारत सिंधु नदी के जल को रोक कर पनबिजली बना सकता है और फिर पानी की दिशा की स्थानांतरित कर अपने लिए सिंचाई और पेय जल की समस्या को दूर कर सकता है।

अर्थात बिना युद्ध के भी हम पाकिस्तान पे काबू पा सकते हैं, अब बाकि सरकार और इसकी इक्षाशक्ति पे निर्भर है।

गुरुवार, 15 सितंबर 2016

बिहार की एक विडम्बना आज के सन्दर्भ में


ये बिहार के लिए एक विडम्बना नहीं तो और क्या है? कभी बिहार का सिवान जिला, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के नाम से  जाना जाता था, इनके नाम से प्रसिद्ध था। परन्तु आज देश बिहार और बिहार के इस सिवान जिले को किस नाम से जोड़ के देख रहा है।

बिहार के नाम को धूमिल करने का काम किसने किया? कुछ वर्षों पहले तक बिहार की जनता अपने आप को बिहार का निवासी कहने से बचता था, बिहारी एक गाली बन गई थी, फिर स्थिति बदलने का आभास हुआ लोगों का नजरिया भी बदलने लगा बिहार के प्रति, बिहारी शब्द की परिभाषा भी नई तरीके से गढ़ी जाने लगी थी। लेकिन अब फिर वही डर कष्ट देने लगी है, कहीं वो शब्द और परिभाषा वापस ना लौट आये।

तो क्या बिहार को फिर से इन गुंडों सहाबुद्दीन, अनंत सिंह या भ्रष्टाचार के सजीव उदाहरण लालू यादव या एक निरक्षर मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के नामों से जाना जायेगा, ये बिहार के लिए एक विडम्बना नहीं तो और क्या है?

सोमवार, 12 सितंबर 2016

झलकता सुशासन या स्याह काली रात



दर्द को पिने की कोशिश करियेगा चंदा बाबु, क्योंकि ये सुशासन की सरकार है। आपका दर्द जो कम कर सकता था, वही दर्द बढ़ा गया। क्या कर सकते हैं आप, न ही आप अख़लाक़ हैं न ही गाय का मांस जिसको लेकर प्राइम टाइम में जगह मिले और न ही आपको कोई अवार्ड मिला है जिसको वापस कर मिडिया पे अपना दुःख बयां कर देश को बता सकते। सुना है आपकी पत्नी बीमार रहती हैं और आपका एक मात्र बचा पुत्र भी विकलांग है, सो जो भी हैं अब एक मात्र आप ही हैं अपने परिवार के लिए। अपनी बूढ़ी हड्डियों को हो सके तो मजबूत करियेगा।

आपके शहर सिवान के दिवंगत पत्रकार राजदेव रंजन की पत्नी भी आपकी ही तरह कानून से भरोसा खोते जा रहीं हैं। पर क्या कर सकते हैं, सुशासन की ढोल पिटी जा रही है शायद उनकी दृष्टि में यही सुशासन कहलाता हो? क्योंकि जिस सहाबुद्दीन की जमानत पे रिहाई पर राज्य के उपमुख्यमंत्री से लेके मंत्री विधायक तक नतमस्तक हों, तो तस्वीर साफ ही है।

माफ करियेगा चंदा बाबु ना ही आप वोट बैंक हैं की आपके यहाँ मंत्री विधायक की लाइन लग जाती, इंसाफ तो छोड़िए संवेदना भी प्रकट करते। माफ करियेगा चंदा बाबु न ही आप अख़लाक़ हैं न ही गाय का मांस ना ही आपके पास कोई अवार्ड है जिसको वापस कर आप अपनी आवाज दर्ज करा सकते।

लेकिन ऐसा नहीं है कि आपकी हिम्मत के प्रति इज्जत कम हुई है, आप महान हैं चंदा बाबु! हमारी पूरी संवेदना है और यही कामना है कि आपकी बूढ़ी हड्डियों को ताकत मिले और इंसाफ भी, हम भी आपकी तरह असहाय हैं क्योंकि हम आम जनता हैं।

लोग कहते हैं, हर स्याह काली रात के बात एक चमकता दिन आता है, पर वे ये बताना भूल जाते हैं कि हरेक चमकते दिन के बाद फिर वही स्याह काली रात लौट आती है। कम से कम बिहार की स्थिति को देख कर कुछ ऐसा ही लगता है। जो लोग गुनगुनाते थे "बिहार में बहार है" एक बार सोचियेगा जरूर की किसके लिए बहार और ये बसंत है।

शनिवार, 10 सितंबर 2016

चाटुकारिता

पता नहीं क्यों जैसे जैसे राजनीती में रूचि बढ़ते गई वैसे वैसे कांग्रेस पार्टी से विरक्ति होती गई, लेकिन यूँ ही नहीं, ठोस कारणों के कारण।  ये चाटुकारी पार्टी है, इस दल में महान से महानतम चाटुकार मिलेंगे गाँधी परिवार की चाटुकारिता करते और ये स्थिति आज की नहीं प्रारम्भ से ही है। मोतीलाल के समय से होते हुए आज राहुल गांधी,  मतलब अभी तक। जो जितना बड़ा गाँधी परिवार का चाटुकार, उसका दल में उतना बड़ा पद।
सन् १९७३ की तस्वीर जो ऊपर है को उदाहरण के रूप में ना लें। इस तस्वीर में बालक राहुल गांधी है और नमन करता हुआ पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री (चाटुकारिता के माध्यम से) सिद्धार्थ शंकर रे।
नीचे की तस्वीर को भी उदाहरण के रूप में ना लें, इनकी चाटुकारिता ने तो इन्हें राष्ट्रपिता बना दिया।

खटिया


हम बात कर रहे हैं राहुल गांधी की, क्या एक राजनेता के रूप में कभी राहुल गांधी को भारत स्वीकारेगा, आज देश में अगर राजनीती की बात होती है तब राहुल गांधी कहाँ खड़े होते हैं, इनकी कोई चर्चा भी होती है, आज कल तो हो रही है, उत्तर प्रदेश के प्रवास के दौरान काफी चर्चा है पर फिर वही चर्चा का केंद्र बिंदु राहुल गांधी ना होकर खटिया हो गया है और हैरत की बात ये देखिये की पूरी की पूरी कांग्रेस लगी है खटिया को मुद्दा बनाने में, अब इसमें इनकी बुद्धिमत्ता कही जाये या कुछ और खैर अपनी अपनी समझ है, खैर खटिया को राष्ट्रीय स्तर पर लाने का श्रेय तो राहुल गांधी को मिलना ही चाहिए।

कभी गाओं में दलान की या खलिहान की शोभा बढ़ाने वाली खाट चर्चा में आई थी जब एक हिंदी चलचित्र में गाना बना था "सरकाई लियो खटिया जाड़ा लगे" और आज फिर वही खटिया चर्चा में है वो भी राष्ट्रीय चर्चा में क्या विडम्बना है, खटिया और खटिया की किस्मत, खैर सुनने में आया की खटिया को राष्ट्रीय गरिमा दिलाने का ये प्रयास प्रशांत किशोर का था, तो फिर चाय पे चर्चा वाला आइडिया किसका था, जो भी हो केंद्र बिंदु तो खटिया को बनना था, चलो अच्छा है।

खेद तो इस बात का है कि देश में किसी नेता को लोग ध्यान से सुनते हैं तो वो मोदी को सुनते हैं, चाहे वो मोदी के समर्थक हों चाहे विरोधी हों चाहे आलोचक हों सब इन्हें ध्यान से सुनते हैं, लेकिन जब बात आती है राहुल गाँधी की तो क्या उनके खुद के नेता क्या उन्हें सुनते हैं, तो जब उनकी स्वीकार्यता उनकी खुद की दल में संदेहास्पद हो तो वो देश में स्वीकार्य हो ये कैसे हो सकता है, संदेह तो इस बात का है कि कहीं राहुल गांधी खटिया ना पकड़ लें, 30 दिन का दौरा है, देखते हैं वो कितना किसानों को समझ पाते हैं और किसान इनको कितना समझ पाते हैं।

इनके ही संगठन के नेता हैं कमलनाथ जो किसी बरसाती मेंढ़क की तरह दीखते हैं जब इनका संगठन शपथग्रहण कर रहा होता है, कुछ इसी प्रकार राहुल गांधी भी करते हैं चुनावी बरसात में निकलेंगे चुनावी मेढ़क की तरह। आरोप लगाना आसान है परंतु विकल्प बनना मुश्किल है। राहुल गांधी को देश कभी विकल्प के रूप में देख नहीं सकती और खुद राहुल गांधी विकल्प बन नहीं सकते, इन्हें तो अपने चरों ओर से किसी ना किसी का सहारा चाहिए तब जा के ये महाशय ठीक से खड़ा हो पाते हैं, इसका कारण है राहुल गांधी में न वो क्षमता है न ही धैर्य, आरोप की राजनीती आपको क्षणिक प्रसिद्धि तो दिला सकती है पर स्थायी नहीं।

खैर खटिया को राष्ट्रीय चर्चा में लाने के लिए धन्यवाद।